Saturday, October 13, 2007

लागा चुनरी में दाग : एक महिला की यात्रा

समय ताम्रकर

निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : प्रदीप सरकार
संगीत : शांतनु मोइत्रा
गीत : स्वानं‍द किरकिरे
कलाकार : रानी मुखर्जी, कोंकणा सेन शर्मा, जया बच्चन, अभिषेक बच्चन, कुणाल कपूर, अनुपम खेर, हेमा मालिनी, टीनू आनंद
रेटिंग : 3/5

Rani-Abhishek

       प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित ‘लागा चुनरी में दाग’ एक नारी के त्याग और समर्पण की कहानी पर आधारित फिल्म हैं। पेंशन से मोहताज पिता (अनुपम खेर)। उसकी दो बेटियाँ बड़की (रानी मुखर्जी) और छुटकी (कोंकणा सेन शर्मा)। माँ (जया बच्चन) रात-रात भर कपड़े सिलकर किसी तरह पैसा कमा रही है, लेकिन खर्चा ज्यादा है।
          

     पिता को लगता है ‍कि यदि उनका बेटा होता तो शायद उन्हें यह दिन नहीं देखना पड़ता। बड़की को यह बात बुरी लगती है। वह बनारस से मुंबई जाने का फैसला करती है। दसवीं पास बड़की को कोई नौकरी नहीं मिलती।
हारकर वह अपने जिस्म का सौदा कर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करती है। बड़की से अब वह नताशा बन गई है। परिवार में बड़की की माँ को छोड़कर सब इस बात से अनभिज्ञ है। छुटकी पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी करने के लिए मुंबई आती है और बड़की का राज खुल जाता है। थोड़े से उतार-चढ़ाव के बाद सुखद अंत के साथ फिल्म समाप्त होती है।
इस तरह की कहानी पर कई फिल्में बन चुकी हैं। आगे क्या होने वाला है इसका अनुमान लगाना दर्शक के कोई मुश्किल काम नहीं है। कहानी की सबसे कमजोर कड़ी है रानी मुखर्जी का अचानक वेश्या बन जाना। क्या संघर्षों से घबराकर इस तरह का रास्ता अपनाना चाहिए? उसके सामने इतने मुश्किल हालात भी नहीं थे कि उसे इस तरह का कदम उठाना पड़े।
कई लोगों को बड़की की माँ का स्वार्थीपन भी अखर सकता है। बड़की मुंबई में असफल होकर वापस बनारस आना चाहती है। वह अपनी माँ को यह भी बताती है कि यहाँ उसे घिनौना काम भी करना पड़ सकता है, लेकिन उसकी माँ की खुदगर्जी आड़े आ जाती है। उन परिस्थितियों में उसके लिए पैसा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। हालांकि यह दिखाया गया है कि उस समय बड़की की माँ परेशान रहती है, लेकिन इतनी बड़ी बात को वह यह कहकर नहीं टाल सकती कि बेटी अब तुम सयानी हो गई हो, यह निर्णय तुम करो।
कहानी चिर-परिचित जरूर है, लेकिन परदे पर इसे बेहद खूबसूरती के साथ प्रदीप सरकार ने पेश किया है। छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये उन्होंने चरित्रों को बखूबी उभारा है। उनके द्वारा फिल्माए गए कुछ दृश्य दिल को छू जाते हैं। उम्दा प्रस्तुति के कारण फिल्म दर्शक को बांधकर रखती है। विवान और छुटकी की नोकझोक के जरिये आधुनिक भारतीय महिला की अच्छी व्याख्या की गई है।


     रेखा निगम द्वारा लिखे संवाद चरि‍त्र को धार प्रदान करते हैं। जब बड़की के वेश्या होने का पता छुटकी को लगता है तो वह ग्लानि से भरकर कहती है कि हम तुम्हारी चिता से अपना चूल्हा जला रहे थे।

Rani-Konkana

   पूरी फिल्म रानी मुखर्जी के इर्दगिर्द घूमती है। रानी का अभिनय शानदार है। उनकी आँखों के जरिये ही चरित्र की सारी मनोस्थिति बयां हो जाती है। कोंकणा सेन तो नैसर्गिक अभिनेत्री है, लगता ही नहीं कि वो अभिनय कर रही है। अभिषेक बच्चन का रोल छोटा है, जो शायद उन्होंने संबंधों की खातिर अभिनीत किया है।
कुणाल कपूर थोड़े नर्वस लगे। जया बच्चन ने अपने चरित्र की सारी बारीकियों को समझकर अच्छी तरह से पेश किया है। हेमा मालिनी और कामिनी कौशल जैसी पुरानी नायिकाओं को देखना भी अच्छा लगता है। अनुपम खेर, सुशांत सिंह और टीनू आनंद ने भी अपना काम ठीक तरीके से किया है।
शांतनु मोइत्रा का संगीत सुनने लायक है। स्वानंद किरकिरे ने उम्दा बोल लिखे हैं। ‘हम तो ऐसे हैं भइया’ सबसे बेहतर गीत है। इस गीत का फिल्मांकन भी उम्दा है। सुशील राजपाल ने बनारस को बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। फिल्म की प्रत्येक फ्रेम खूबसूरत है। फिल्म साफ-सुथरी है और पारिवारिक दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। उम्दा प्रस्तुतिकरण और शानदार अभिनय के कारण इस फिल्म को देखा जा सकता है।

(स्रोत - वेबदुनिया)

पहचान-पर्ची: लागा चुनरी में दाग

Wednesday, October 10, 2007

द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाय

‘मुसाफिर’ और ‘जिंदा’ जैसी कमर्शियल फिल्म बनाने वाले संजय गुप्ता अब नए अंदाज में फिल्म बनाने लगे हैं। उनके द्वारा निर्मित और सार्थक दासगुप्ता द्वारा निर्देशित फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाय’ को इंडो-अमेरिका आर्ट काउंसिल फिल्म फेस्टिवल के लिए चयनित‍ किया गया है। यह समारोह न्यूयार्क में 7 से 11 नवंबर को होगा।
       संजय अब इस तरह की फिल्मों का निर्माण करना चाहते हैं और इसके लिए नये लोगों को मौका भी दे रहे हैं। इस फिल्म के निर्देशक सार्थक अपनी अच्छी खासी नौकरी को छोड़कर बॉलीवुड में किस्मत आजमाने चले आए। उनकी इस फिल्म में आमिर बशीर, संध्या मृदुल और बैरी जॉन ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं।

(स्रोत - वेबदुनिया)

Tuesday, October 9, 2007

एक समय में एक फिल्म

Vidya

        विद्या बालन उन नायिकाओं में से नहीं है, जो ज्यादा से ज्यादा फिल्में हथियाने की कोशिश में लगी रहती है। विद्या ने कम से कम फिल्म करने का फैसला किया है, ताकि वह अपने अभिनय पर, अपने किरदार पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दे सकें।
विद्या कोशिश करेगी कि एक समय में वह केवल एक फिल्म करें। ‘भूलभुलैया’ विद्या की शीघ्र प्रदर्शित होने वाली फिल्म है। ‘हल्ला बोल’ का वह सारा काम कर चुकी है।
विद्या ने यह निर्णय लेकर दर्शा दिया है कि उसे अपनी प्रतिभा पर पूरा भरोसा है और वह किसी भी तरह की असुरक्षा भावना से ग्रस्त नहीं है।

(स्रोत - वेबदुनिया)

 

 

रानी को राजा की तलाश

पिछले दिनों रानी मुखर्जी फिल्मों के बजाय अन्य कारणों से चर्चित रही। चाहे ‘लागा चुनरी में दाग’ की बनारस की शूटिंग का मामला हो या फिर आदित्य चोपड़ा से शादी की बात हों।
रानी के मुताबिक बनारस में शूटिंग के दौरान सुरक्षा अधिकारी उसके निजी नहीं थे। उन्होंने लोगों के साथ गलत व्यवहार किया और मीडिया ने यह कहकर प्रचारित किया कि वे रानी के गार्ड थे। फिर भी रानी ने माफी मांगी। जहाँ तक आदित्य चोपड़ा से शादी की बात है तो वह इसे कोरी बकवास मानती है।
अगले एक महीने के अंदर रानी की ‘लागा चुनरी में दाग’ और ‘साँवरिया’ जैसी प्रमुख फिल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं। दोनों फिल्मों से रानी को बेहद उम्मीद है।

लागा चुनरी में दाग

Rani

’लागा चुनरी में दाग’ के रूप में एक अरसे बाद नारी प्रधान फिल्म आ रही है। प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित इस दो घंटे बीस मि‍नट की फिल्म में रानी का किरदार बेहद सशक्त है। इस फिल्म में रानी बड़की नामक लड़की बनी है।
फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार के बड़े बच्चे को किस तरह के दबाव का सामना करना पड़ता है, खासकर अगर वह लड़की हों। रानी अपने परिवार की खुशियों के लिए सब कुछ त्याग देती है।
रानी को इस फिल्म में अपने अभिनय के जौहर दिखाने का भरपूर अवसर मिला है और इसका सारा श्रेय वह प्रदीप सरकार को देती है। फिल्म में उसे तीन अलग-अलग लुक्स के साथ दिखाया गया है।

Rani

साँवरिया
देखा जाए तो ’साँवरिया’ रणबीर कपूर और सोनम कपूर के लिए महत्वपूर्ण फिल्म है, लेकिन रानी भी इस फिल्म का अहम‍ हिस्सा है। ‘ब्लैक’ में संजय लीला भंसाली रानी के अभिनय से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने कहा था कि वे रानी के बिना फिल्म बनाने की सोच भी नहीं सकते।
संजय लीला भंसाली जैसे निर्देशक को रानी मना नहीं कर सकती और उन्होंने दोस्ती की खातिर इस फिल्म में काम किया है। रानी का कहना है कि रणबीर और सोनम ने इस फिल्म के लिए खूब मेहनत की है।

सही व्यक्ति की तलाश
मीडिया ने भले ही रानी की शादी करवा दी हो, लेकिन रानी का कहना है कि यह कुछ लोगों के दिमाग की उपज है। वह जब भी शादी करेगी सभी को बता करेगी। शादी करना कोई अपराध नहीं है, इसलिए वह अपनी शादी को कभी नहीं छिपाएगी। फिलहाल वह सही व्यक्ति की तलाश में है।

 

(स्रोत-वेबदुनिया)

Monday, October 8, 2007

सलमान और अक्षय ने ठुकराई थी ‘चक दे इंडिया’

Salman

    ‘चक दे इंडिया’ जैसी फिल्म करने के बाद शाहरुख की लो‍कप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ। सभी ने इस फिल्म को सराहा। शाहरुख ने इस फिल्म में अपने अभिनय के नए रंग दिखाए।
इस फिल्म के निर्देशक शिमित अमीन जब इस फिल्म को बनाने वाले थे, तब उनके दिमाग में कबीर खान की भूमिका के लिए सलमान खान का नाम था। सलमान को कहानी पसंद आई, लेकिन उन्होंने बहुत ज्यादा रकम मांगी। शिमित इतना पैसा देना नहीं चाहते थे। कम पैसों में सलमान काम नहीं करना चाहते थे। बात नहीं बनी।

Akshay

‘चक दे इंडिया’ एक खिलाड़ी पर आधारित फिल्म है, इसलिए शिमित गए खिलाड़ी कुमार यानि कि अक्षय कुमार के पास। अक्षय को लगा कि यह कोई आर्ट फिल्म है। मसाला फिल्मों में काम करने वाले अक्षय को आर्ट-वार्ट टाइप फिल्मों से एलर्जी है, सो उन्होंने मना कर दिया। हारकर शिमित शाहरुख के पास गए और इसके बाद की कहानी तो आप सभी को पता है।

(स्रोत -वेबदुनिया)

मनोरमा : सिक्स फीट अंडर

निर्माता : केतन मारू
निर्देशक : नवदीप सिंह
संगीत : जयेश गाँधी - रेमंड मिर्जा
कलाकार : अभय देओल, रायमा सेन, गुल पनाग, विनय पाठक, सारिका, कुलभूषण खरबंदा

Manorama     देओल परिवार से जुड़े अभय देओल अभी तक सफलता की तलाश में हैं। अभय ने कई तरह के किरदार निभाए हैं। उनके अभिनय की प्रशंसा भी हुई, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर उनकी फिल्म सफल नहीं हो पाई।
निर्देशक नवदीप सिंह ने अभय को लेकर ‘मनोरमा : सिक्स फीट अंडर’ का निर्माण किया है। इस फिल्म में थ्रिल और मर्डर मिस्ट्री के साथ-साथ मनुष्य और समाज से जुड़े कुछ मुद्दे भी उठाए गए हैं।
सत्यवीर सिंह उर्फ एसवी (अभय देओल) एक गैरपेशेवर जासूस है जो एक छोटे शहर में रहता है। पेशे से वह एक सरकारी इंजीनियर है। उसका ध्यान इंजीनियरिंग में कम और जासूसी उपन्यास लिखने में ज्यादा है।
वह अपना पहला उपन्यास ‘मनोरमा’ तैयार करता है, लेकिन उस उपन्यास को कोई भी पसंद नहीं करता। इस असफलता के बाद वह घटिया स्तर की पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर देता है।
छोटे शहर में उसका मन नहीं लगता और असफलता के कारण वह बेहद परेशान रहता है। एक दिन एसवी की किस्मत बदलती है। एक असरदार नेता की पत्नी एसवी के पास आती है और जासूस एसवी को अपने पति पर निगाह रखने का काम सौंपती है। एसवी यह काम स्वीकार कर लेता है।

Manorama

     अपनी जासूसी के दौरान एसवी को उस महिला की असलियत पता चलती है। वह जैसी अपने आप को पेश करती है, वैसी वह बिलकुल भी नहीं है। परिस्थिति तब और खराब हो जाती है जब उस महिला की मौत रहस्यमय परिस्थितियों में हो जाती है।
एसवी उस महिला की मौत के पीछे छिपे कारणों का पता लगाने की कोशिश करता है, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है।
क्या एसवी उन कारणों का पता लगा पाएगा?
क्या एसवी के खिलाफ कोई साजिश हो रही है?
क्या वह झूठ और हत्या के जाल में फँस जाएगा?
इन सवालों के जवाब के लिए देखिए ‘मनोरमा : सिक्स फीट अंडर’।

(स्रोत -वेबदुनिया)

मुलाकात : सोनम कपूर से

"साँवरिया" दिल से बनाई गई फिल्म है : सोनम कपूर

Sonam

          अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर ने कभी सोचा भी नहीं था कि वे अभिनय की दुनिया में कदम रखेंगी। ‘ब्लैक’ में संजय लीला भंसाली की सहायक रह चुकी सोनम को अचानक एक दिन संजय ने ‘साँवरिया’ की नायिका बना दिया। पेश है सोनम से बातचीत :

क्या इससे अच्छी शुरूआत आप को मिल सकती थी?

   -   यह सर्वश्रेष्ठ शुरुआत है। संजय लीला भंसाली के साथ काम करना हर कलाकार का सपना होता है। मुझे अपनी पहली ‍ही फिल्म में संजय जैसे महान निर्देशक के साथ काम करने का मौका मिला है। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। इस फिल्म में मेरा किरदार बेहद सशक्त है।

संजय लीला भंसाली के बारे में कुछ बताइए।

   -   मैं उन्हें अपना गुरु मानती हूँ। जब मैं उनकी सहायक निर्देशक थी, तब मुझे उनसे सीखने को मिला। अभिनय करना भी उन्हीं से सीखा। जब कभी सलाह की जरूरत पड़ती है तो उनसे ही बात करती हूँ। वे भावुक इनसान हैं और हर काम दिल से करते हैं। ‘साँवरिया’ उन्होंने दिल से बनाई है। उनकी बनाई हुई प्रत्येक फिल्म उम्दा है।


सुना है कि इस फिल्म की शूटिंग के दौरान आपको भंसाली की डाँट भी पड़ी है?

  -   सही सुना है। यदि आप ठीक से काम नहीं करते तो स्कूल में भी टीचर की डाँट खाना पड़ती है। फिल्म की शूटिंग के दौरान कभी कुछ गलत काम होता था तो मुझे भी नाराजी का सामना करना पड़ता था।

दर्शकों को आपसे बेहद आशाएँ हैं।

  -   अनिल कपूर जैसे स्टार की बेटी होने के कारण दर्शकों को मुझसे ढेर सारी उम्मीदें हैं। उनकी बराबरी करने की तो मैं सोच भी नहीं सकती। मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि ‘साँवरिया’ हिट हो और मैं उम्मीदों पर खरा उतर सकूँ।


सलमान और रानी के साथ अभिनय करना कैसा लगा?

  -   मैं सलमान और रानी की बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ और इनके साथ ही मुझे पहली फिल्म में काम करने का अवसर मिला। रानी महान अभिनेत्री हैं। सलमान को तो मैं बचपन से पसंद करती हूँ। वे इतने हैंडसम हैं कि हर लड़की उन्हें पसंद करती है। मेरे पिता के वे बेहद अच्छे दोस्त हैं। सेट पर उन्होंने हमेशा मेरा खयाल रखा।


रणबीर की कौन-सी आदत आपको नापसंद है?

  -   उसमें कोई बुरी आदत नहीं है।


आपने अभिनय और निर्देशन दोनों किया है। कौन-सा काम आसान लगा? 
 -  दोनों में चुनौतियाँ हैं।


क्या भविष्य में आप फिल्म निर्देशक बनना पसंद करेंगी?

  -   फिलहाल तो चार-पाँच वर्ष मैं अभिनय पर ध्यान देना पसंद करूँगी। उसके बाद हो सकता है फिल्म निर्देशित करूँ।


सुना है आप कविताएँ भी लिखती हैं और पेंटिंग भी करती हैं?

  -   मैं बहुत रोमांटिक किस्म की लड़की हूँ। हमेशा खयालों में खोई रहती हूँ, इसलिए कविताएँ भी लिखती हूँ।

(स्रोत -वेबदुनिया)

भूलभुलैया : भुतहा महल का रहस्य

निर्माता : भूषण कुमार - किशन कुमार
निर्देशक : प्रियदर्शन
गीतकार : समीर
संगीतकार : प्रीतम
कलाकार : अक्षय कुमार, विद्या बालन, शाइनी आहूजा, अमीषा पटेल, परेश रावल, राजपाल यादव, असरानी

Akshay Kumar

        टी-सीरिज द्वारा निर्मित फिल्म ‘भूलभुलैया’ 1993 में बनी सुपरहिट मलयालम फिल्म ‘मणिचित्रा थाजू’ का हिंदी में रीमेक है। मलयालम फिल्म का निर्देशन किया था फाजिल ने और प्रियदर्शन ने उनके सहायक के तौर पर काम किया था। अब वे अपने गुरु की ‍फिल्म को हिंदी में पेश कर रहे हैं।
प्रियदर्शन इस फिल्म को अरसे से बनाना चाहते थे, लेकिन बात अब बनी। उनके अनुसार इस फिल्म में ह्यूमन साइकोलॉजी का सहारा लिया गया है और इसके कुछ अनजान पहलुओं को पहली बार दर्शकों के सामने पेश करने की कोशिश की गई है।
कहानी है एक गाँव की। इस गाँव में दकियानूसी लोगों की संख्या ज्यादा है। गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता है। इसके मुखिया बद्रीनारायण चतुर्वेदी (मनोज जोशी) हैं। इनका एक महल है जिसके बारे में सभी का कहना है कि उसमें भूत रहते हैं।

Amisha

     एक दिन अमेर‍िका से बद्री के बड़े भाई का बेटा सिद्धार्थ (शाइनी आहूजा) अपनी पत्नी अवनी (विद्या बालन) के साथ गाँव लौटता है। परिवार में उसका स्वागत गर्मजोशी के साथ किया जाता है।
सिद्धार्थ का भूत-प्रेत जैसी बातों पर बिलकुल यकीन नहीं है। वह महल में रहने की जिद करता है और परिवार के विरोध के बावजूद वहीं रहता है। सिद्धार्थ के घर वालों का मानना है कि यदि वह वहाँ रहने चला गया तो परिवार पर मुसीबत आ सकती है।
सिद्धार्थ के महल में जाते ही रहस्यमय घटनाएँ घटित होने लगती हैं। इस मुसीबत में सिद्धार्थ को अपने दोस्त डॉक्टर आदित्य श्रीवास्तव (अक्षय कुमार) की याद आती है। आदित्य गाँव आता है और महल में घट रही घटनाओं का रहस्य पता करने का जिम्मा लेता है।

Vidya Balan

      आधुनिक उपकरणों की मदद से वह अपराधी को पकड़ने की कोशिश करता है। आदित्य जल्दी ही समझ जाता है कि यह सब इतना आसान नहीं है जितना कि वह समझ रहा था।
कौन है इन रहस्यमय घटनाओं के पीछे?
उसका उद्देश्य क्या है?
क्या इन घटनाओं के पीछे भूत-प्रेत का हाथ है?
क्या आदित्य पर्दाफाश कर पाएगा?
जानने के लिए देखिए ‘भूलभुलैया’।

(स्रोत -वेबदुनिया)

गो : गेट, सेट,… भागो - थिएटर से बाहर

समय ताम्रकर

निर्माता : रामगोपाल वर्मा
निर्देशक : मनीष श्रीवास्तव
कलाकार : गौतम, निशा कोठारी, केके मेनन, राजपाल यादव, गोविंद नामदेव
रेटिंग : 0.5/5

Gautam-Nisha

      रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्मित फिल्म ‘गो’ के एक दृश्य में राजपाल यादव गुंडों को धमकाते हुए कहते हैं कि भाग जाओ यहाँ से। गुंडे नहीं भागते। फिर वह दूसरी बार कहते हैं ‘मैं दूसरी बार वार्निंग दे रहा हूँ भाग जाओ यहाँ से।‘ गुंडे फिर भी नहीं भागते, लेकिन सिनेमाघर से कुछ दर्शक जरूर भाग जाते हैं।

                    एक निर्माता के रूप में रामगोपाल वर्मा की बुद्धि पर तरस आता है। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने इतनी घटिया कहानी पर फिल्म बनाने की सोची। मौका देने में अगर वे इतने उदार हैं तो फिल्म बनाने की हसरत पालने वाले हर इनसान को रामू से मिलना चाहिए।
ऐसा लगता है कि नौसिखियों की टीम ने यह फिल्म बनाई है। घिसी-पिटी कहानी, बकवास पटकथा और घटिया निर्देशन। कौन कितना घटिया काम करता है, इसका मुकाबला चल रहा है। पूरी फिल्म दृश्यों की असेम्बलिंग लगती है। कहीं से भी कोई-सा भी दृश्य टपक पड़ता है।
कहानी है दो प्रेमियों की। उनके माता-पिता शादी के खिलाफ रहते हैं। क्यों रहते हैं यह नहीं बताया गया। दोनों मुंबई से गोवा के लिए भाग निकलते हैं। साथ में एक कहानी और चलती रहती है। इसमें उपमुख्यमंत्री की हत्या मुख्यमंत्री ने करवा दी है।
दोनों कहानी के सूत्र आपस में जुड़ जाते हैं। परिस्थितिवश उपमुख्यमंत्री की हत्या का सबूत इन प्रेमियों के हाथ लग जाता है और उन्हें पता ही नहीं रहता। सबूत मिटाने के लिए मुख्यमंत्री के गुंडों के अलावा पुलिस भी इनके पीछे लग जाती है। इन सबसे वे कैसे बचते हैं, ये बचकाने तरीके से बताया गया है।
एक छोटा-सा बैग लेकर भागे ये प्रेमी हर दृश्य में नए कपड़ों में नजर आते हैं। पता नहीं उस बैग में इतने सारे कपड़े कैसे आ जाते हैं? बैग भी मि. इंडिया से कम नहीं है। कभी उनके साथ रहता है तो कभी गायब हो जाता है।
गौतम नामक नए अभिनेता ने इस फिल्म के जरिये अपना कॅरियर शुरू किया है। उसके पास न तो हीरो बनने की शक्ल है और न ही दमदार अभिनय। निशा कोठारी के लिए अभिनय के मायने हैं आँखें मटकाना, तरह-तरह की शक्ल बनाना और कम कपड़े पहनना। केके मेनन ने पता नहीं क्यों यह फिल्म की? राजपाल यादव जरूर थोड़ा हँसाते हैं।
फिल्म के निर्देशक के रूप में मनीष श्रीवास्तव का नाम दिया गया है। पता नहीं इस नाम का आदमी भी है या फिर बिना निर्देशक के काम चलाया गया है। फिल्म बिना ड्राइवर के कार जैसी चलती है, जो कहीं भी घुस जाती है।
गानों से कैंटीन वाले का भला होता है, क्योंकि दर्शक गाना आते ही बाहर कुछ खाने चला जाता है। फिल्म के कुछ दृश्यों में जबरदस्त अँधेरा है। तकनीकी रूप से फिल्म फिसड्‍डी है। ‘गो’ देखते समय थिएटर से बाहर भागने की इच्छा होती है।

(स्रोत -वेबदुनिया)

शाहिद, करीना और वो?

Kareena-Shahid

          शाहिद और करीना के बीच की दरार की वजह अमृता राव को बताया जा रहा है। अमृता और शाहिद ने कुछ फिल्मों में साथ काम किया है। दोनों के बीच अच्छी दोस्ती भी है। कहा जा रहा है कि अमृता को करीना पसंद नहीं करती हैं। इसके बावजूद शाहिद ने अपनी दोस्ती अमृता से नहीं तोड़ी।
सूत्रों के अनुसार एक बार करीना ‘विवाह’ के सेट पर अचानक पहुँच गईं। शाहिद और अमृता इस फिल्म की शूटिंग में हिस्सा ले रहे थे। करीना जब वहाँ पहुँचीं तब अमृता शाहिद की वैन से बाहर आ रही थीं। करीना का शक और पक्का हो गया।
बाद में करीना ने सैफ से दोस्ती कर ली। कहा जा रहा है कि कनाडा से लौटने के बाद शाहिद और करीना ने अपने दोस्त के यहाँ मुलाकात की और दोनों के बीच जमकर झगड़ा हुआ।

(स्रोत -वेबदुनिया)

ओम शांति ओम : देशी बोतल में विदेशी शराब

संदीप सिंह सिसोदिया

Shahrukh

          किंग खान के हॉट लुक, 'शर्ट लेस' डांस और नवोदित तारिका दीपिका पादुकोण से सजी फरहा खान की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'ओम शांति ओम' की कथा-कहानी पूर्व जन्म पर आधारित है। हॉलीवुड की फिल्मों पर हाथ साफ करना बॉलीवुड वालों की आदत है। इस फिल्म की कहानी भी हॉलीवुड से उठाई गई है।
एमीली ओर्डोलिनो द्वारा निर्देशित 1989 में बनी 'चांसेस आर' में नायक (क्रिस्टोफर मक्डॉंनल्ड) अपनी शादी की पहली सालगिरह पर घर लौटते समय दुर्घटना का शिकार हो जाता है। वह रोबर्ट डोव्नी के रूप में फिर जन्म लेता है और संयोगवश अपनी ही बेटी (मेरी स्टुअर्ट मास्टरसन) से प्यार कर बैठता है। जब वह अपनी प्रेमिका के घर उसकी माँ से मिलने जाता है, तब उसे अपना पिछला जन्म याद आ जाता है, मगर उसकी पूर्व जन्म की पत्नी (सीबिल शेपर्ड) उसे पहचानने से इनकार कर देती है।
'ओम शांति ओम' की कहानी भी कुछ इसी से प्रेरित लगती है। यहाँ दीपिका 70 के दशक की बड़ी अभिनेत्री होती है और शाहरुख एक एक्स्ट्रा कलाकार की भूमिका में है, जिसे दीपिका से प्रेम हो जाता है। दोनों एक-दूसरे के बहुत प्रेम करते हैं, मगर तभी

Deepika

शाहरुख की ह्त्या हो जाती है और उसका पुनर्जन्म होता है। इस जन्म मे भी उसे अपना पिछला जन्म याद रहता है। वह अपने प्यार की तलाश में निकल पड़ता है और तब कहानी एक नया मोड़ लेती है।
अभी तक तो देखा गया है कि जब भी बड़े बजट की फिल्में हॉलीवुड से प्रेरित रही हैं वे हिट रही हैं। फराह खान और किंग खान की जोड़ी तो वैसे ही सुपरहिट है। तो अब इंतजार है 'ओम शांति ओम' देखने का।

(स्रोत -वेबदुनिया)

Tuesday, October 2, 2007

"ढोल" की पोल

निर्माता : परसेप्ट पिक्चर कंपनी
निर्देशक : प्रियदर्शन
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : तुषार कपूर, तनुश्री दत्ता, शरमन जोशी, कुणाल खेमू, राजपाल यादव, ओमपुरी, पायल रोहतगी, अरबाज खान, असरानी
रेटिंग : 2/5

Dhol

           आजकल बॉलीवुड में एक नया ट्रेंड चल पड़ा है। बजाय एक हिट हीरो के उसके आधे दाम में तीन-चार फ्लॉप नायकों को लो और कॉमेडी फिल्म बना डालो। मस्ती, धमाल, गोलमाल इसी श्रेणी की फिल्में हैं। कुणाल खेमू या तुषार कपूर को दर्शक अकेले नायक के रूप में तीन घंटे नहीं झेल सकते हैं, इसलिए तीन-चार नायकों की भीड़ जमा कर ली जाती है।
‘ढोल’ में भी शरमन, तुषार, कुणाल जैसे फ्लॉप नायकों की भीड़ है। इनके साथ राजपाल यादव भी है। बेशक राजपाल ने सबसे अच्छा काम किया है, लेकिन इन नौजवानों के बीच वे बूढ़े लगते हैं। तनुश्री दत्ता को पटाने की उनकी हरकत बचकानी लगती है।


          ‘ढोल’ देखने की वजह ये फ्लॉप नायक नहीं बल्कि प्रियदर्शन हैं। दर्शक उनका नाम देखकर ही टिकट खरीदता है, लेकिन प्रियदर्शन भी रामगोपाल वर्मा की राह पर चल रहे हैं। उन्होंने भी रामू की तरह फिल्म बनाने की फैक्टरी खोल ली है और क्वालिटी के बजाय क्वांटिटी पर ध्यान देने का असर प्रोडक्ट (फिल्म) पर पड़ने लगा है।
प्रियदर्शन की पुरानी हास्य फिल्मों की तुलना ‘ढोल’ से की जाए तो यह फिल्म बेहद कमजोर लगती है। अमीर लड़की, चार लफंगे टाइप लड़के, अमीर बनने के लिए अमीर लड़की को पटाना और साथ में अपराध का एक पेंच दर्शक सैकड़ों बार परदे पर देख चुके हैं। ‘ढोल’ में भी वही सब नजर आता है।
प्रियदर्शन ने हमेशा परिस्थितिवश पैदा हुए हास्य के जरिये हँसाने की कोशिश की है, लेकिन ‘ढोल’ में मामला संवाद पर आ टिका है। संवादों के बल पर आधा घंटा हँसा जा सकता है, लेकिन बाद में ऐसा लगता है कि बेमतलब हँसाने की कोशिश की जा रही है। बिना सिचुएशन के संवाद भी कोई मायने नहीं रखते हैं।
धागे से भी पतली कहानी को ढाई घंटे तक खींचा गया है। मध्यांतर तक तो कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। केवल बेमलतब के दृश्यों और संवादों के माध्यम से दर्शकों को बाँधने की कोशिश की गई है। मध्यांतर के बाद इस कमजोर कहानी को आगे बढ़ाया गया है। फिल्म में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो दर्शकों को हँसने पर मजबूर करते हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है।
प्रियदर्शन की फिल्मों का अंत कैसा होता है, ये कोई भी बता सकता है। सभी पात्र अंत में इकट्ठे होते हैं और उनके बीच भागमभाग या मारपीट होती है। ‘ढोल’ में भी यही नजारा देखने को मिलता है।
राजपाल यादव को निर्देशक ने सबसे ज्यादा फुटेज दिया है। उनका अभिनय भी अच्छा है, लेकिन वे टाइप्ड होते जा रहे हैं। शरमन जोशी का और अच्छा उपयोग हो सकता था। कुणाल खेमू में आत्मविश्वास नजर आता है। तुषार की अभिनय क्षमता सीमित है।
तनुश्री को अकेली नायिका होने के बावजूद ज्यादा सीन नहीं मिले हैं। उनके ग्लैमर का भी उपयोग नहीं किया गया है। ओमपुरी जैसे कलाकार को इस तरह की महत्वहीन भूमिकाएँ नहीं करना चाहिए। असरानी और अरबाज ने जगह भरने का काम किया है।

Dhol

             गानों में ‘ढोल बजा के’ अच्छा है। अन्य गीत भूलने लायक हैं। संवाद द्विअर्थी नहीं हैं, लेकिन उनका स्तर कादर खान नुमा है। मवाली लोग इस तरह के संवाद बोले वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन ओमपुरी और तनुश्री को फिल्म में सभ्य दिखाया गया है। उनके मुँह से इस तरह के संवाद सुनना अखरता है।
फिल्म का संपादन बेहद ढीला-ढाला है। फिल्म को आधा घंटा छोटा किया जाना चाहिए। तनुश्री और पायल को मुरली द्वारा ढूँढने वाला दृश्य बेहद लंबा है। प्रियदर्शन को दोहराव से बचना चाहिए और कुछ नया सोचना चाहिए, वरना उनका हश्र भी रामगोपाल वर्मा की तरह हो सकता है।

 

 Source : webduniya

Monday, October 1, 2007

भागती हुई ‘गो’

निर्माता : रामगोपाल वर्मा
निर्देशक : मनीष श्रीवास्तव
संगीत : प्रसन्ना शेखर, स्नेहा खानवलकर, अमर मोहिले, डीजे अकील
कलाकार : गौतम, निशा कोठारी, राजपाल यादव, केके मेनन, गोविंद नामदेव

Gautam - Nisha

                 रामगोपाल वर्मा के लिए फिल्म बनाना किसी उत्पाद बनाने के समान है। उनकी फिल्में ‍लगातार आती रहती हैं। अब वे ‘गो’ लेकर आ रहे हैं। इस फिल्म के वे निर्माता हैं और निर्देशन का जिम्मा उन्होंने मनीष श्रीवास्तव को सौंपा है। रामू की पसंदीदा नायिका निशा कोठारी नायिका बनी हैं और उनके साथ नए हीरो गौतम को प्रस्तुत किया जा रहा है।
मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मा अभय नरूला (गौतम) अपने माता-पिता की एकमात्र संतान है। आत्मविश्वास से भरे अभय को इस बात का पक्का यकीन है कि कैसी भी परिस्थिति हो, वो उनसे निपटने में सक्षम है। हमेशा मुस्कराने वाले अभय को रिश्तों में मजबूती पसंद है।
वसुंधरा दवे (निशा कोठारी) अभय के पड़ोस में रहने वाली लड़की है। वह भी एक मध्यमवर्गीय परिवार से है। वसुंधरा बेहद सीधी-सादी और रोमांटिक स्वभाव वाली लड़की है। वह हमेशा चॉकलेट और फूलों की दुनिया में खोई रहती है। अभय उसे अकसर छेड़ता रहता है, लेकिन इस बात का बुरा उसने कभी नहीं माना।
अभय और वसुंधरा के बीच प्यार है और वे अपने अरमानों को पूरा करने के लिए घर से भाग जाते हैं। उन दोनों को पता नहीं रहता कि इस राह में अलग-अलग किस्म के चरित्रों का सामना उन्हें करना पड़ेगा।
राज्य का मुख्यमंत्री अपने मंत्री की हत्या करवा देता है। अभय और वसुंधरा का पाला उस मंत्री की लाश से पड़ता है और मुसीबतें शुरू हो जाती हैं। इनके पीछे पुलिस के साथ मुख्यमंत्री के गुंडे भी लग जाते हैं।
भागते-भागते कई किस्म के लोग इनसे टकराते हैं और ये फँसते चले जाते हैं। इन झमेलों में से वे किस प्रकार निकलते हैं, इसे फिल्म में रोमांचक ढंग से दिखाया गया है। शुरूआत से तेज गति से भागती हुई ‘गो’ दर्शकों को पसंद आएगी, ऐसा इस फिल्म से जुड़े लोगों का मानना है।

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