Tuesday, October 2, 2007

"ढोल" की पोल

निर्माता : परसेप्ट पिक्चर कंपनी
निर्देशक : प्रियदर्शन
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : तुषार कपूर, तनुश्री दत्ता, शरमन जोशी, कुणाल खेमू, राजपाल यादव, ओमपुरी, पायल रोहतगी, अरबाज खान, असरानी
रेटिंग : 2/5

Dhol

           आजकल बॉलीवुड में एक नया ट्रेंड चल पड़ा है। बजाय एक हिट हीरो के उसके आधे दाम में तीन-चार फ्लॉप नायकों को लो और कॉमेडी फिल्म बना डालो। मस्ती, धमाल, गोलमाल इसी श्रेणी की फिल्में हैं। कुणाल खेमू या तुषार कपूर को दर्शक अकेले नायक के रूप में तीन घंटे नहीं झेल सकते हैं, इसलिए तीन-चार नायकों की भीड़ जमा कर ली जाती है।
‘ढोल’ में भी शरमन, तुषार, कुणाल जैसे फ्लॉप नायकों की भीड़ है। इनके साथ राजपाल यादव भी है। बेशक राजपाल ने सबसे अच्छा काम किया है, लेकिन इन नौजवानों के बीच वे बूढ़े लगते हैं। तनुश्री दत्ता को पटाने की उनकी हरकत बचकानी लगती है।


          ‘ढोल’ देखने की वजह ये फ्लॉप नायक नहीं बल्कि प्रियदर्शन हैं। दर्शक उनका नाम देखकर ही टिकट खरीदता है, लेकिन प्रियदर्शन भी रामगोपाल वर्मा की राह पर चल रहे हैं। उन्होंने भी रामू की तरह फिल्म बनाने की फैक्टरी खोल ली है और क्वालिटी के बजाय क्वांटिटी पर ध्यान देने का असर प्रोडक्ट (फिल्म) पर पड़ने लगा है।
प्रियदर्शन की पुरानी हास्य फिल्मों की तुलना ‘ढोल’ से की जाए तो यह फिल्म बेहद कमजोर लगती है। अमीर लड़की, चार लफंगे टाइप लड़के, अमीर बनने के लिए अमीर लड़की को पटाना और साथ में अपराध का एक पेंच दर्शक सैकड़ों बार परदे पर देख चुके हैं। ‘ढोल’ में भी वही सब नजर आता है।
प्रियदर्शन ने हमेशा परिस्थितिवश पैदा हुए हास्य के जरिये हँसाने की कोशिश की है, लेकिन ‘ढोल’ में मामला संवाद पर आ टिका है। संवादों के बल पर आधा घंटा हँसा जा सकता है, लेकिन बाद में ऐसा लगता है कि बेमतलब हँसाने की कोशिश की जा रही है। बिना सिचुएशन के संवाद भी कोई मायने नहीं रखते हैं।
धागे से भी पतली कहानी को ढाई घंटे तक खींचा गया है। मध्यांतर तक तो कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। केवल बेमलतब के दृश्यों और संवादों के माध्यम से दर्शकों को बाँधने की कोशिश की गई है। मध्यांतर के बाद इस कमजोर कहानी को आगे बढ़ाया गया है। फिल्म में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो दर्शकों को हँसने पर मजबूर करते हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है।
प्रियदर्शन की फिल्मों का अंत कैसा होता है, ये कोई भी बता सकता है। सभी पात्र अंत में इकट्ठे होते हैं और उनके बीच भागमभाग या मारपीट होती है। ‘ढोल’ में भी यही नजारा देखने को मिलता है।
राजपाल यादव को निर्देशक ने सबसे ज्यादा फुटेज दिया है। उनका अभिनय भी अच्छा है, लेकिन वे टाइप्ड होते जा रहे हैं। शरमन जोशी का और अच्छा उपयोग हो सकता था। कुणाल खेमू में आत्मविश्वास नजर आता है। तुषार की अभिनय क्षमता सीमित है।
तनुश्री को अकेली नायिका होने के बावजूद ज्यादा सीन नहीं मिले हैं। उनके ग्लैमर का भी उपयोग नहीं किया गया है। ओमपुरी जैसे कलाकार को इस तरह की महत्वहीन भूमिकाएँ नहीं करना चाहिए। असरानी और अरबाज ने जगह भरने का काम किया है।

Dhol

             गानों में ‘ढोल बजा के’ अच्छा है। अन्य गीत भूलने लायक हैं। संवाद द्विअर्थी नहीं हैं, लेकिन उनका स्तर कादर खान नुमा है। मवाली लोग इस तरह के संवाद बोले वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन ओमपुरी और तनुश्री को फिल्म में सभ्य दिखाया गया है। उनके मुँह से इस तरह के संवाद सुनना अखरता है।
फिल्म का संपादन बेहद ढीला-ढाला है। फिल्म को आधा घंटा छोटा किया जाना चाहिए। तनुश्री और पायल को मुरली द्वारा ढूँढने वाला दृश्य बेहद लंबा है। प्रियदर्शन को दोहराव से बचना चाहिए और कुछ नया सोचना चाहिए, वरना उनका हश्र भी रामगोपाल वर्मा की तरह हो सकता है।

 

 Source : webduniya

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